हमारी समस्या, परमेश्वर का समाधान (Our Problem, God’s Solution)

 

बुराई से घृणा करने वाले परमेश्वर के साथ हमारा मेल-मिलाप कैसे हो सकता है, यह समस्या इतिहास की सबसे बड़ी समस्या है। इससे पहले कि हम स्वर्ग में परमेश्वर को देख पाएँ, कुछ बातों में मौलिक रूप से परिवर्तन होना चाहिये। इसके लिये अब तक खोजे गए सबसे बढ़िया समाधान से कम की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिये।

जो बात हमें मालूम होनी चाहिये वह यहाँ दी गई है:

1.“तब परमेश्‍वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार उत्‍पन्‍न किया... तब परमेश्‍वर ने जो कुछ बनाया था, सबको देखा, तो क्या देखा, कि वह बहुत ही अच्छा है” (उत्प. 1:27, 31)।

परमेश्वर ने मनुष्य को अपने जैसे व्यक्तिगत् और सम्बन्ध स्थापित करने वाले गुणों के साथ बनाया (उत्प. 1:26) और वह उनके साथ एक सुखद सम्बन्ध बनाना चाहता था। परन्तु कोई बहुत ही गलत बात घटित हुई। जब आदम और हव्वा ने अदन की वाटिका में शैतान की बात मानने का चुनाव किया (उत्प. 3 अध्याय), तो पाप ने इस संसार में जहर घोल दिया और अब हम सब कामों को परमेश्वर के तरीके से नहीं, बल्कि अपने तरीके से करने की इच्छा के साथ पैदा हुए हैं।

2.“इसलिये कि सब ने पाप किया है और परमेश्‍वर की महिमा से रहित हैं” (रोमि. 3:23)।

भले और पवित्र परमेश्वर के विरुद्ध हमारे पापों ने हमें उससे दूर कर दिया है (यशा. 59:2 को देखें)। परमेश्वर “बुराई को देख ही नहीं सकता” (हब. 1:13)। पाप के कारण हम परमेश्वर के साथ रिश्ता और इसके साथ ही अपनी खुशी भी गँवा देते हैं। इन सबका परिणाम मृत्यु होता है। नरक नामक वास्तविक स्थान पर परमेश्वर से अलगाव होना आत्मिक मृत्यु है। परमेश्वर के साथ सम्बन्ध में प्रवेश करने और अनन्त दण्ड से बचने के हमारे अवसर के अंत का प्रतीक शारीरिक मृत्यु है
(इब्रा. 9:27)।

3.“क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है, परन्तु परमेश्‍वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है” (ि. 6:23)।

स्वयं को परमेश्वर के सामने बहाल करने के लिये हम वास्तव में कुछ नहीं कर सकते हैं। वह पवित्र है, परन्तु हम पवित्र नहीं हैं। वास्तव में, वह कहता है कि हमारे धर्म के काम मैले चिथड़ों के समान हैं (यशा. 64:6 को देखें)। परन्तु परमेश्वर ने हमसे इतना प्रेम किया कि उसने हमें मृत्यु से छुड़ाने और जीवन देने के लिये अपने पुत्र यीशु को, जो पूर्ण परमेश्वर और पूर्ण मनुष्य है, हमारे पास भेजा (. 3:16)। “परमेश्‍वर हम पर अपने प्रेम की भलाई इस रीति से प्रगट करता है, कि जब हम पापी ही थे तभी मसीह हमारे लिये मरा” (रोमि. 5:8)।

यीशु हमारे पापों का दाम चुकाने के लिये क्रूस पर चढ़ा। उसने हमारे लिये वह किया जो हम अपने लिये नहीं कर सके। जब यीशु हमारे लिये मरा, तो उसने कहा, “पूरा हुआ” (यूह. 19:30)। जब कर्ज के प्रमाणपत्रों को रद्द किया जाता था, तो उन पर यूनानी भाषा के शब्द “पूरा हुआ” को लिखा जाता था। इसका अर्थ यह था कि “पूरा भुगतान कर दिया गया है।” उसके बाद यीशु पाप और मृत्यु पर विजय प्राप्त करते हुए कब्र में से जी उठा (1 कुरि. 15:3-4 को देखें)।

4.“क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन् परमेश्‍वर का दान है; और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे” (इफि. 2:8-9)।

परमेश्वर का सबसे बड़ा वरदान उसके साथ एक बहाल किया हुआ सम्बन्ध है, जो हमें नरक से बचाता है और हमें स्वर्ग में प्रवेश करने का आश्वासन प्रदान करता है (यूह. 3:36)। यह वरदान हमारी योग्यता पर नहीं, बल्कि पूरी तरह से क्रूस पर हमारे लिये मसीह के अनुग्रह के कार्य पर निर्भर करता है (तीतु. 3:5 को देखें)। परमेश्वर तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता वही है। उसने कहा, “मार्ग और सत्य और जीवन मैं ही हूँ; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँच सकता”
(यूह. 14:6)।

5.“कि यदि तू अपने मुँह से यीशु को प्रभु जानकर अंगीकार करे और अपने मन से विश्वास करे, कि परमेश्‍वर ने उसे मरे हुओं में से जिलाया, तो तू निश्चय उद्धार पाएगा” (रोमि. 10:9)।

परमेश्वर के साथ सही होने के लिये, हमें अपने पापी हृदयों और कार्यों को मान लेना होगा, और परमेश्वर से क्षमा माँगनी होगी। यदि हम ऐसा करते हैं, तो वह दयालु होकर पूर्ण क्षमा देने की प्रतिज्ञा करता है: “यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने, और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है” (1 . 1:9)। तब हमें दूसरों को यह पुष्टि करनी होगी कि पुनरुत्थित यीशु ही हमारा प्रभु है।

6.“जो मेरा वचन सुनकर मेरे भेजनेवाले पर विश्वास करता है, अनन्त जीवन उसका है, और उस पर दण्ड की आज्ञा नहीं होती परन्तु वह मृत्यु से पार होकर जीवन में प्रवेश कर चुका है” (यूह. 5:24)।

जिस जीवन की हम अभिलाषा करते हैं, वह हमें मसीह में निःशुल्क प्रदान किया जाता है। हम उसकी प्रतिज्ञा पर विश्वास कर सकते हैं और विनम्रतापूर्वक उसके अनन्त जीवन के वरदान को स्वीकार करते हुए हमारा उद्धार करने के लिये उसे पुकार सकते हैं: “जो कोई प्रभु का नाम लेगा, वह उद्धार पाएगा” (रोमि. 10:13)। परमेश्वर का पवित्र आत्मा हममें वास करता है और उसकी आज्ञा का पालन करने में हमारी सहायता करता है (2 तीमु. 1:14 को देखें)।

सुसमाचार को “कल्याण का शुभ समाचार” कहा जाता है (यशा. 52:7)। यीशु ने कहा कि “मैं इसलिये आया कि वे जीवन पाएँ, और बहुतायत से पाएँ” (यूहन्ना 10:10)। परमेश्वर हमें मसीह में वह जीवन और खुशी प्रदान करता है, जिसकी हम लालसा करते हैं और वह चाहता है कि हम सदैव इसका आनन्द लेते रहें। यहाँ एक प्रार्थना दी गई है, जो आपको यीशु पर अपने विश्वास की पुष्टि करने में सहायता कर सकती है। केवल इन शब्दों को कह देने में ही कोई जादू नहीं है, परन्तु जो वास्तव में आपके हृदय में है, वही उसे परमेश्वर के सामने व्यक्त करने में आपकी सहायता कर सकते हैं:

हे परमेश्वर, मैं विश्वास करता हूँ कि आपने मेरे सब पापों का दाम चुकाने के लिये अपने पुत्र यीशु को क्रूस पर मरने के लिये भेजा। मैं विश्वास करता हूँ कि यीशु ने मरे हुओं में से जी उठने के माध्यम से पाप और मृत्यु पर विजय प्राप्त की। जिस सीमा तक मुझे इनमें से किसी भी बात पर विश्वास करना कठिन लगता है, मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप मेरे अविश्वास पर काबू पाने के लिये मेरे हृदय और मन में काम कीजिए। जो कुछ बाइबल कहती है, उस पर भरोसा करने में मेरी सहायता कीजिए—कि हे यीशु, आप ही परमेश्वर के वह जन हैं, जो मुझे पाप और मृत्यु से बचाने तथा पिता के पास मुझे फिर से पहुँचाने के लिये आए हैं।

मैं अपने पापों के लिये खेद जताता हूँ और उनका पश्चाताप करना चाहता हूँ, जिसमें मेरा अपने आप पर मन लगाना भी शामिल है। मैं इस बात को महसूस करते हुए अपने पापों का अंगीकार करता हूँ कि मैं अभी तक उन सबके बारे में नहीं जानता, परन्तु मैं आपसे मुझे और अधिक जागरूक बनाने के लिये अनुरोध करता हूँ। आपकी सामर्थ्य से मैं गलत काम करना छोड़ देना चाहता हूँ, और अपने जीवन के हर उस हिस्से को त्यागना चाहता हूँ, जो आपको प्रसन्न नहीं करता—जिसमें न केवल मेरे कार्य, बल्कि मेरा दृष्टिकोण भी शामिल है। मैं एक नया मनुष्य होने और एक नया जीवन व्यतीत करने की प्रसन्नता का अनुभव करना चाहता हूँ। मैं स्वयं को आपके हाथों में सौंपता हूँ।

मैं आभारी होकर आपकी क्षमा को स्वीकार करता हूँ और आपसे मेरा उद्धारकर्ता, प्रभु और राजा बनने की प्रार्थना करता हूँ। कृपया मुझमें वास करने के लिये आइए और मुझे एक नया जीवन व्यतीत करने के लिये सशक्त बनाइए। मुझे अपने प्रेम से भर दीजिए। मुझे आपके वचन और आपके अनुयायियों से यह सीखने में सहायता कीजिए कि एक ऐसे परिवर्तित मनुष्य के रूप में कैसे जीवन व्यतीत करना है, जो दूसरों से प्रेम करता है और उन्हें क्षमा करता है, जैसे आप मुझसे प्रेम करते हैं और मुझे माफ करते हैं। आपका धन्यवाद।

मैं ये सब प्रार्थनाएँ यीशु के नाम से माँगता हूँ। आमीन।

एक बार जब आप मसीह को अपने उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार कर लेते हैं, तो सबसे महत्वपूर्ण कामों में से एक काम जो आपको करना होता है, वह है मसीही लोगों के परिवार का हिस्सा बनना, जिसे कलीसिया कहा जाता है। एक अच्छी कलीसिया परमेश्वर का वचन सिखाने के साथ-साथ प्रेम, सहायता और समर्थन प्रदान करेगी। यदि आपके पास यीशु के बारे में कुछ प्रश्न हैं, तो आप वहाँ उनका उत्तर पा सकते हैं। ऐसे लोगों की खोज करें जो परमेश्वर के वचन को जानते हों और यीशु के साथ आपके रिश्ते को आगे बढ़ाने में आपकी सहायता कर सकें! बाइबल पढ़ें, प्रार्थना करें, अपने विश्वास को बाँटें, और परमेश्वर के लोगों के साथ नियमित रूप से संगति करें। “हमारे प्रभु, और उद्धारकर्ता यीशु मसीह के अनुग्रह और पहचान में बढ़ते जाओ” (2 पत. 3:18)।

 

Our Problem, God’s Solution

The problem of how we could possibly be reconciled with a God who hates evil is the greatest problem of history. Before we can see God in Heaven, something must radically change. This calls for no less than the greatest solution ever devised.

Here is what we need to know:

1. “God created mankind in his own image...God saw all that he had made, and it was very good” (Genesis 1:2731).

God made human beings with personal and relational qualities like His own (Genesis 1:26) and desired to have a delightful relationship with them. But something went terribly wrong. When Adam and Eve chose to follow Satan’s advice in the Garden of Eden (Genesis 3), sin poisoned the world and now we are all born with the desire to do things our own way, not God’s.

2. "For all have sinned, and come short of the glory of God" (Romans 3:23).

Our sins against a good and holy God have distanced us from Him (see Isaiah 59:2). God “cannot tolerate wrongdoing” (Habakkuk 1:13). Through sin we forfeit a relationship with God, and along with it our happiness.  The result of all this is death. Spiritual death is separation from God in a very real place called Hell. Physical death marks the end of our opportunity to enter into a relationship with God and avoid eternal condemnation (Hebrews 9:27).

3. “The wages of sin is death, but the gift of God is eternal life in Christ Jesus our Lord” (Romans 6:23).

There is absolutely nothing we can do to restore ourselves to God. He is holy, we are not. In fact, He says even our good deeds are like filthy rags (see Isaiah 64:6). But God loved us so much He sent us His Son Jesus, fully God and fully man, to deliver us from death and give us life (John 3:16).  "God demonstrates His own love toward us…while we were still sinners, Christ died for us" (Romans 5:8).

Jesus went to the cross to pay the price for our sins. He did for us what we couldn’t do for ourselves. When Jesus died for us, He said, “It is finished” (John 19:30). The Greek word translated “it is finished” was written across certificates of debt when they were canceled. It meant “paid in full.” Jesus then rose from the grave, conquering sin and death (see 1 Corinthians 15:3-4).

4. “For it is by grace you have been saved, through faith—and this is not from yourselves, it is the gift of God—not by works, so that no one can boast” (Ephesians 2:8-9).

God’s greatest gift is a restored relationship with Himself, delivering us from Hell and granting us entry into Heaven (John 3:36). This gift depends not on our merit but solely on Christ’s work of grace for us on the cross (see Titus 3:5). He is the one and only way to God. He said, “I am the way and the truth and the life. No one comes to the Father except through me” (John 14:6).

5. “If you confess with your mouth Jesus as Lord, and believe in your heart that God raised Him from the dead, you will be saved" (Romans 10:9).

To be right with God, we must admit our sinful hearts and actions, and ask God’s forgiveness. If we do, He graciously promises full forgiveness: “If we confess our sins, he is faithful and just and will forgive us our sins and purify us from all unrighteousness” (1 John 1:9). Then we are to affirm to others that the resurrected Jesus is our Lord.

6. "Whoever hears my word and believes Him who sent me has eternal life and will not be condemned; he has crossed over from death to life” (John 5:24).

The life we long for is freely offered to us in Christ. We can believe His promise and call on Him to save us, humbly accepting His gift of eternal life: “Everyone who calls on the name of the Lord will be saved” (Romans 10:13). God’s Holy Spirit indwells us and helps us obey Him (see 2 Timothy 1:14). 

The gospel is called the “good news of happiness” (Isaiah 52:7). Jesus said, “I have come that they may have life, and have it to the full” (John 10:10). God offers us in Christ the life and happiness we crave and He wants us to enjoy foreverHere’s a prayer that may help you affirm your faith in Jesus. There’s no magic in just saying the words, but they may help you genuinely express to God what’s in your heart:

God, I believe you sent your Son Jesus to die on the cross to pay the price for all my sins. I believe Jesus conquered sin and death through His resurrection from the dead. To the degree I find any of this difficult to believe, I ask that you work in my heart and mind to overcome my unbelief. Help me to trust what the Bible says—that you, Jesus, are the God-man who came to rescue me from sin and death and to restore me to the Father.

I am sorry for and want to repent of my sins, including my self-centeredness. I confess my sins, realizing I’m not yet aware of all of them, but I ask you to make me more aware. With your strength I want to turn away from doing wrong, and give up every part of my life that doesn’t please you—not just my actions but my attitudes. I want to experience the joy of being a new person and living a new life. I surrender myself to you.

I gratefully receive your forgiveness and ask you to be my Savior and Lord and King. Please come to indwell me and empower me to live a new life. Fill me with your love. Help me to learn from your Word and your followers how to live as a transformed person who loves and forgives others as you love and forgive me. Thank you.

I ask all these things in the name of Jesus. Amen.

Once you’ve accepted Christ as your Savior, one of the most important things you need to do is become part of a family of Christians called a church.  A good church will teach God’s Word and provide love, help, and support. If you have further questions about Jesus, you can find answers there. Seek out people who know God’s Word and can help you grow in your relationship with Jesus! Read the Bible, pray, share your faith, and gather regularly with God’s people. “Grow in the grace and knowledge of our Lord and Savior Jesus Christ” (2 Peter 3:18).

 

Photo: Unsplash

Randy Alcorn (@randyalcorn) is the author of over sixty books and the founder and director of Eternal Perspective Ministries